इसे भी मै अपने 'फाइबर आर्ट'मे तब्दील कर चुकी हूँ...किसी दिन उसकी तस्वीर भी पोस्ट कर दूँगी...!
शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009
सूखा झरना!
इस तस्वीर की एक दूरसे ली छवी पोस्ट कर चुकी थी...ये पाससे ली है...ऊँचें रचे हुए पत्थरों पे नदीओं में मिलने वाले सफ़ेद, गोल पत्थर डाल रखे थे....पानी की फुहार सुराही में से निकलता थी जिसे water sculpture ..कहा जाता है...यहाँ पे फाइबर के बने लैंप लगाये थे, जब रातमे जलाये जाते थे, तो लगता था पत्थर से छनके रौशनी आ रही है....अब ये कवल तस्वीरें बगीचे तो रहे नही...बगीचों की आसान तरीक़ेसे बनानेके लिए ये कुछ सुझाव मात्र हैं!
इसे भी मै अपने 'फाइबर आर्ट'मे तब्दील कर चुकी हूँ...किसी दिन उसकी तस्वीर भी पोस्ट कर दूँगी...!
गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009
एक अलग angle से बगीचे की तस्वीर..
बुधवार, 19 अगस्त 2009
एक रचना...नही रही..
उसपे केवल रेत डाल रखी थी..और फाइबर के बने लैंप शेड लगा दिए थे..रात मे वो पारदर्शी पत्थरों का आभास दिलाते...
जो सुराही दार मिट्टीका घडा दिख रहा है, वह 'water scuptor' बनाया था...छोटी-मोटर पास ही मे ज़मीन मे गाड़ दी थी...ढक्कन पे गमले रख दिए थे...
सोमवार, 10 अगस्त 2009
कहाँ गए वो गुलशन ?
सच तो ये है,कि, जितनी भी तस्वीरें बगीचों की रचनाओं की पोस्ट की हैं,उनमेसे एक भी नही बचा है...और न जाने कितने किए,जिनकी तस्वीरें नही लीं..लेकिन वो भी नही बचे..वजूहात कई रहे..कितने तो सरकारी मकान थे, दफ्तर थे...किसी नए अफसर के आने के बाद, अपने,अपने शौक़ तथा नज़रिए के मुताबिक़ बगीचे बनाये या, निकले जाते हैं...उसपे किसी का बस नही...शायद इसलिए,होगा,के,मै जब बागवानी पे लिखती हूँ,तो मनमे एक दर्द सिमट आटा है..उन बगीचों से सो एहसास जुड़े हुए थे...जितनी मेहनतसे पेड़ पौधों को लगाया गया था, वो सब धराशायी हो गए...एक निर्ममता के साथ..
जिस स्कूल के बगीचे की तस्वीर दी है, वो स्कूल ही वहाँ नही रही..एक मॉल बन गया..और जो कुछ चाँद रोज़ वो स्कूल थी भी,तो बगीचा,तथा उसके पीछे एक बेहद सुंदर,पुराना बंगला हुआ करता था...जिस मे नर्सरी का वर्ग चलता, वो बँगला भी तोड़ दिया गया...वहाँ एक इमारत खडी हो गयी..
इस स्कूल मे बच्चों के साथ लगी रहती थी..एक शिक्षिका के तौरसे नही...उनके साथ खेलने आती औए खेल्ही खेलमे उनसे बीज लगवाती...उन्हें पौधों के 'क़लम' बनाना सिखाती..कटिंग सिखाती...वो अपने घर से छोटे,छोटे मिट्टी के गमले लेके आते...जब उनमे कोंपल फूटते,तो इन बच्चों के चेहरों पे ख़ुशी देखने लायक होती...वो रोना धोना सब भूल जाते...!
वर्ग मे कुल ३०/३२ बच्चे हुआ करते...तक़रीबन रोज़ही एक बीज,या , एक पौधा हर बच्चा लगाता..कई बार, स्कूल की क्यारियों मे..सोचिये, जिन छ: साल मैंने वहाँ काम किया,कितने पौधे लगे होंगे? और वो महानगर नही था...सभी के पास पौधे लगानेकी जगह हुआ करती..कईयों के पास छज्जा होता...और कई बच्चों के पिता वहाँ के उद्योग पती थे...उनके कारखानों मे काफ़ी जगह हुआ करती...वहाँ,इन बच्चों ने कितने ही पेड़ पौधे लगाये..वो होंगे..मैंने देखे नही..लेकिन,हाँ, कभी कोई मिल जाता है,तो बता देता है..उनमेसे कई शादी शुदा हैं...जिन्हों ने ये धरोहर आगे बढ़ाई है...और अपने हाथ से लगे काफ़ी पेड़ पौधों को बचाए रखा है...मैंने ख़ुद अपने हाथों से उस स्कूल के परगन मे अनगिनत पेड़ लगाये थे..सब धराशायी हो गए..और उन्हें धराशायी करनेवाले सब 'बाहुबली' थे..हैं...
खैर!
http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com
इस ब्लॉग पे मैंने मैंने:
'नेकी कर, कुए मे डाल' इस शीर्षक तले,संस्मरण लिखे हैं..जिस सहेली की बात कर रही हूँ,वो इसकी मुख्याद्यापिका थी...उससे वो स्कूल छीन ली गयी..उसके पिता मालिक,तथा trustee थे..ये सब कैसे,क्यों हुआ, उसपे क्या बीती..मैंने उसका कितना साथ दिया...ये सब 'नेकी कर...' इस लेख मे मौजूद है..एक बेहद दर्द नाक कहानी...ऐसा होगा,कभी सोचा न था..लेकिन ना वो सहेली अब मेरी 'सखी' रही..ना ही वो स्कूल रहा ..चंद तस्वीरें...बस चंद तस्वीरें,मेरे तस्सवूर मे जी रही हैं..उस बागवानी की..उन बच्चों की...और मेरी उस सहेली के साथ गुज़ारे दिनों की..उसके साथ खिंची...जो उसने ख़ास खिंचवाई थीं...क्योंकि उसे हमारी दोस्ती पे बेहद नाज़ था...वो तस्वीरें,कलही हाथ लगीं...गर वो सब घटा नही होता,तो मै,उसके साथ खींची अपनी तस्वीरें ज़रूर ब्लॉग पे डाल देती..मगर अफ़सोस!
"दिलों मे बने गुलशन हुए बियाँ बाँ,
हम किन बगीचों की बात करें?"
शनिवार, 8 अगस्त 2009
रविवार, 26 जुलाई 2009
चंद बौने पेड़...!
My बोनसाई
ये कुछ बौने पौधे हैं,जिन्हें कई बरसों से सँजोए रखा है...तस्वीरें तो कुल १०/१२ हैं...तादात काफी अधिक है...ना जाने किन पुराने कुओं तथा हवेलियों मे उगे इन पौधोंको मै निकाल लाती...गमलों मे लगाके उनपे अपने प्यारकी वर्षा करती और ये झूम उठते...!हमारी बंजारों की-सी ज़िंदगी ने इन्हें तकलीफ पहुचाई..कई बार इन्हें किसी अन्य के हवाले करना पड़ता और ये दम तोड़ देते...बडाही अफ़सोस होता...पर क्या करती..जब हमाराही ठौर ठिकाना नही होता, तो चाह के भी,इन्हें अपनी छत्रो छयामे नही रख सकती...कभी जब पुराने पेडों की तस्वीरें देखती हूँ, जो अब नही रहे, तो आँखों मे एक धुंद-सी छाही जाती है..उनपे निकले कोमल कोंपल याद आते हैं, जिन्हें मै बड़ी एहतियातसे सँजोती..अब मौसम है..इनकी मिट्टी बदलनी होगी.इनकी ही नही..बिटियाने जो अन्य धरोहर छोडी है...उन सभी की...!
truks मे इन पौधों को बेहद संभल के रखती...खूब घान फूंस इनके नीचे बिछाती..लेकिन ख़राब रास्ते और बदहाल ट्रक, नुकसान तो पहुचाते ही। सुंदर,सुदर टहनियाँ टूटी मिलती...
गुरुवार, 2 जुलाई 2009
गूलर का बोनसाय
और अब इन घटनाओं को मै एक मेहेज़ इत्तेफाक नही मानती.....गर ज़्यादा बीमार हो जाती हूँ, तो बरसात के मौसम मे भी कई पौधों के पत्ते ,पतझड़ का मानो मौसम हो, इस तरह झड़ जाते हैं...!
बुधवार, 24 जून 2009
बगीचे..रचनात्मक यादें...!
बगीचों की चंद रचनाएँ....
घरों तथा बगीचों की जब भी रचना करती हूँ,तो मेरा एक ख़ास बातपे आग्रह रहता है...रख रखाव सुलभ हो, तथा मौसम और मूड के मुताबिक हम उसमे चाहे जब बदलाव ला सकें।
अक्सर बगीचा बनाते समय लोगों की धारणा रहती है: हरियाली और गुलाबों के बिना बगीचा कैसे अच्छा लग सकता है!
हरियाली और गुलाबों के लिए खुली जगह और धूप की ज़रूरत होती है। गुलाबों पे बीमारी भी काफ़ी आती है...ख़ास कर हाइब्रिड क़िस्म के गुलाबों पे। इन सब बातों की पूरी जानकारी और उसके साथ शौक़ ना हो,तो, बेहतर है,कि, गुलाब के ४/५ गमले लगा लें...धूप की दिशाके अनुसार उनकी जगह बदलते रहें।
इस तरीक़े को अपनाने मे भी दिक्कतें होती हैं...।गमला गर वज़न मे भारी हो,तो उसे हिलाना मुश्किल...अलावा इसके, मिट्टी कमसे कम हर दो साल मे , बदलनी होती है..खाद, गुडाई, ये सब समय पे हो तभी गुलाब के पौधे सेहेतमंद रह सकते हैं। इन्हें हरसमय निगरानी और तीखी निगेह बानी की ज़रूरत होती है।
गुलाबों पे लगनेवाले कीटक जन्य रोगों मे से एक है, मीली बग। ये कीडा, जो हवामे उड़ता है, और साँस के ज़रिये फेफडों मे भी जा सकता है, राई के दानेसे १० वा हिस्सा छोटा होता होता है...
इतना छोटा जीव लेकिन इसके बारेमे मै एक बात गौर करके हैरान रह गयी...पौधेकी ऊँचाई, गर इन्सान के क़द से अधिक होती है, तो ऊपरकी पत्तियों , फूलों और डालों पे ये अपना कोष, ऊपरी सतेह पे बनाता है...गर पौधा, क़द मे छोटा होता है, या पौधे के निचले हिस्से मे कोष बनाता है,तो पत्तियों /फूलों/टहनियों के नीचेके हिस्से पे अपना कोष बनाता है...! हरेक पत्ती को, वैसे भी, रोज़ाना ऊपर नीचेसे उलट पुलट के देख लेना ज़रूरी होता है...
ऐसे पौधे की छंटाई भी करें तो उड़ के अन्य किसी पौधेपे बैठ , ये फिर खूब फैलता है। वैसेभी छटाई करते वक्त हर कली, पत्ती या टहनी सीधे किसी थैली मे डाल देना ज़रूरी है। काट ने के बाद गर उसे वहीँ पड़ा छोड़ दें तो चंद घंटों मे ये जीव अपना परिवार बढ़ा लेता है ! कहीँ से गर, एकाध टहनी की खाल भी उतर गयी हो,तो, उसके नीचे घुस, ये कीडा जड़ों तक फैल जाता है।
गुलाब के पौधे पे गर हम छटाई करने का तरीक़ा अपनाते हैं, तो गुलाब बढेगा कैसे ? गुलाब की छंटाई का एक ख़ास मौसम होता है, अन्य, साधारण, पौधों की भाँती, इसकी जब चाहें तब छंटाई कर नही सकते। इसके अलावा, गुलाब का पौधा अपने आप मे सुंदर नही होता....इसलिए, जब उसपे फूल नही होते तो वो आकर्षित नही करता। जिनके पास घरके पिछवाडे मे जगह हो,तथा जानकार माली रखने की हैसियत हो, ऐसे ही लोगों ने गुलाब या तत्सम , नाज़ुक पौधों को अपने बगीचे मे लगाना चाहिए, वरना, गुलाब के कारन, सारे बगीचे को नुकसान पोहोंच जाता है।
हरियाली मे से जंगली घाँस हर थोड़े दिनों से निकलना ज़रूरी होता है। बोहोत ही शौक़ हो तो, चार कुर्सिया और एक छोटा टेबल रख ने जितनी जगह पे हरियाली लगायें...और टेबल कुर्सी वहाँ तभी लाएँ, जब बैठना हो...अन्यथा, जहाँ, टेबल कुर्सी की छाया पड़ेगी, या दबाव पडेगा, वहाँ, हरियाली नष्ट होने लगेगी।
जैसे, गृह सज्जा/ designing मे texture बोहोत सुन्दर लगता है, बगीचे मे भी उतनाही सुंदर लगता है। texture लाने के कई आसान तरीक़े अपनाए जा सकते हैं...
रेतीका भी प्रयोग बगीचे मे "texture" लाने के लिए किया जा सकता है।
( मैंने अपनी ओरसे तो वर्तनी बड़े गौरसे संपादित की है। गर कुछ रह गया हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ ! एक बड़ी मज़ेदार गलती मुझसे लगातार हुई थी...जिसे माँ को पढ़ के सुनाया तो,वो हँस-हँस के लोट पोट हो गयीं...!
मैंने "पत्तियों " की बजाय, हर बार, अनजाने मे "पती" टाइप किया था...ख़ास कर वहाँ, जहाँ मै मीली बग के बारेमे लिख रही थी...)
अलग, अलग शेहरोंमे हुए तबादलों के समय, मैंने बनाये कुछ बगीचे...जिन्हें कढाई मे तब्दील करनेके लिए रुकी हूँ...कई तो कर चुकी हूँ...दुर्भाग्यवश उनकी तस्वीरें नही निकालीं....
शुक्रवार, 12 जून 2009
बगीचों चंद रचनाएँ...
गुरुवार, 11 जून 2009
एक दोपहर...बागवानीकी......
अब "बागवानी" ये नया ब्लॉग बना लिया।
आज नेट पे बैठी तो चंद ही रोज़ पहलेकी एक दोपहर याद आ गयी....पिछ्ला बसंत बिना किसी बागवानीके बीत गया था...और येभी बीत जा रहा था...पिछले साल बरसात शुरू हुई तब अपने बगीचेकी और नज़र पडी और मै होशमे आ गयी कि मेरे पौधों को मेरी निहायत ज़रूरत है...बेचारे बेज़ुबाँ कुछ कह नही सकते, मुझे आवाज़ नही देते....लेकिन, ज़ाहिर कर रहे थे, मूक खड़े, खड़े कि, उनकी सेहेत बिगड़ती जा रही है...उन्हें ज़रूरत है एक प्यारभरी निगरानी की...निगेह्बानीकी...
उस शाम,पिछले वर्ष, मेरी बिटिया मेरे साथ थी...कुछ अरसे बाद लौट गयी थी..अपने घर.......कुछ नए पौधे उसके साथ उस शामको लगानेकी शुरुआत की थी..
थी तो उस दोपेहेरकोभी..... लेकिन दोबारा आके बस २/३ दिनों में अपने घर लौट जानेवाली थी....मै मनही मन उदास थी...चाहे वो अपने घर राज़ी खुशी लौट रही थी, पर मुझसे जा तो बोहोत दूर रही थी....परदेस....जो मेरे पोहोंचके बाहर था...है...
वो मेरेही कमरेमे सो रही थी और मै बाहर निकल आयी....छज्जेपे हमारी बैठक सेही एक नज़र दौडाई....परिन्दोंकी आवाजें सुनाई दे रही थीं....बजे तो दोपेहेरके ४ ही थे...उनके बर्तन में पानी तो ६ बजेके करीब पड़ता था, लेकिन इन्तेज़ारमे थे। दरवाज़े के ठीक सामनेवाले कठरेपे पँछी बैठे हुए दिखे...क़तारमे....जैसेही मैंने दरवाजा खोला, उडके उस मिट्टीके बर्तन के पास चले गए, जिसमे मै उनके लिए पानी रखा करती हूँ....ओह!!समझी....!!गरमी के कारन पानी तप गया होगा...हर गरमीके मौसम में ये परिंदे ऐसाही तो करते हैं...मैही भूल जाती हूँ...
मैंने वो बर्तन उठाया और छज्जेपे लगा नलका खोला...उफ़! उसमेसे तपा हुआ पानी आ रहा था...! मै रसोईमे गयी और वहाँसे बोतल लेके लौटी। पानी ठंडा था...मैंने बर्तन में उँडेल दिया....और थोड़ा परे हट गयी....बारी, बारी कितनेही परिंदे आते रहे...मैना, फाखते, बुलबुल, कबूतर, कौव्वे, sunbirds, औरभी कई...हाँ...गोरैय्या को मुद्दतें हो गयी हैं देखे हुए..उनकी तो जाती ही नष्ट होते जा रही है...और वजह है हमारा बेहिसाब कीटक नाशक का छिडकाव....मै नही डालती लेकिन अतराफमे हर दूसरा डालताही है...
पिछले सालसे इस सालतक मैंने गौर किया कि इतनी तरह ,तरहकी बीमारियाँ, जो मेरे पौधोंपे लगीं, मैंने ज़िन्दगीमे कभी नही देखी थी....पिछले साल मै पहली बार मिट्टी खरीद्के लाई थी....तबतक मिट्टी मैही बनाती थी...किसी खेतसे लाल मिट्टी ले आती, गोबरका खाद और ईटोंका चुरा मिलाके मिट्टी खुदही बनाती....वो जो मिट्टी लाई, उसके साथ ना जानूँ, कितनीही बीमारियाँ मेरे पौधों में लग गयीं...एक माह के अन्दर मुझे तकरीबन १५० पौधों की मिट्टी ३ बार बदल देनी पडी...अंतमे जो मिट्टी मै खरीदके लाई, उसे पहले मैंने एक बड़े बर्तन मे तपा लिया और फिर इस्तेमाल किया...पूरी रात मै मशागत में लगी रही थे...सुबह होते, होते, थकके लेट गयी थी!!
जडोंमे लगे कीडों के लिए मैंने हर गमलेमे गेंदेके बीज डाले...एक ख़ास किस्मका कीडा( बाल जैसा बारीक और एकदम छोटा)गेंदेकी गंधसे दूर रहता है। कितनीही हिकमतें कीं.... कुछ तो बेहद सुंदर और पुराने बोनसाई के पेड़ मरभी गए, बार बार जड़ें हिल जानेके कारण...अफ़सोस हुआ बोहोत, पर क्या कर सकती थी??एक ज़माना था, जब मै तम्बाकू के पौधे पानीमे उबालके/या भिगोके, उसका पौधों पे छिडकाव करती थी। यहाँ कहाँसे लाऊँ? फिरभी तलाशमे लगी हूँ...
उस दिनपे लौट चलती हूँ....उस रोज़, कितने अरसे बाद मुझे परिन्दोंकी आवाजें अच्छी लगीं....उन्हें तो जैसे मै सुननाही भूल गयी थी...जैसे अपने पौधोंकी पुकार मुझे सुनाई नही दे रही थी...और सिर्फ़ पौधे नही, उनकी दास्ताँ तो परिंदे मुझे सुनाया करते थे...!इनके गीत सुनना क्यों छोड़ दिया मैंने?के इनकी रहनुमाई भी मै भूल गयी...?हाँ, रहनुमाई....जो ये परिंदे हमेशा किया करते थे....उसी बारेमे लिखने जा रही हूँ...और रहनुमाई तो इन परिंदों ने ढेर सारी बातों में की है...किन, किन बातोंको याद कर दोहराऊँ??मुझे तो पता नही कितनी सदियाँ पीछे जाना होगा??
मै हमेशा, एक दूरीसे अपने पौधोंको चुपकेसे निहारती...जिन, जिन पौधोंपे परिंदे बैठते, मै बादमे उन सबके पास जाती और उन गमलोंको, उनमे बढ़ रहे पौधोंके फूल और पत्तियोंको, खूब गौरसे देखा करती....उनपे हमेशा मुझे किडोंका और बीमारीका अस्तित्व नज़र आता...मै उन पौधों के पत्ते हटा देती( अब भी वही करती हूँ)। गुडाई करके देखती कि , मिट्टी तो ठीक है...उनकी जगह बदल देती...गमलोंके नीचे गर पानी नही सूखता तोभी बीमारी आही जाती है...जड़ें सड़ने लगती हैं...
उस दोपहर मैंने यही सब शुरू कर दिया। एक बात जान गयी हूँ...गर मै अपने बगीचेसे ३ दिन दूर रहती हूँ, तो दस दिनोंका काम इकट्ठा हो जाता है...बीमारी, दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगती करती है।
देखा तो चंद दिनों पहले, अपनी पूरी बहारपे लदी रातकी रानी, ९० प्रतिशतसे अधिक, मीली बग से भर गयी थी....उसे तकरीबन जड़ों तक मुझे छाँट देना पडा.....फिलहाल तो शुक्र है कि उसकी जान तो बच गयी है....
बागवानी करते समय, मै हरबार प्लास्टिक की थैलियाँ अपने साथ रखती हूँ( वैसे प्लास्टिक से मुझे चिढ है...)....और छाँटी हुई टहनियाँ, पत्ते आदि सब उसमे बंद कर लेती हूँ...तभी कूडेदान में फेंकती हूँ। उस बेल को इस तरह से छाँटते हुए बड़ा दुःख हुआ...कुछही रोज़ तो हुए थे अभी, जब इसके सुगंधने पूरा छज्जा महकाया था....जनवरी या फरवरी??मैंने कबसे इस बेल को नज़रंदाज़ कर दिया था??इतने दिन हो गए??
उस दोपेहेरको जो मै अपनी बगीचेमे लगी तो रातके १० बजेतक लागीही रही....सिर्फ़ एकबार अन्दर जाके अपने लिए लस्सी ले आयी। और अपने पौधों से वादा करके ही अन्दर गयी , अबकी बार मुझे माफ़ कर दें...फिर ऐसी गलती, जान बूझके तो नहीही करूँगी....
बिटिया तो चली गयी...फिर एकबार उसने अपनी धरोहर मुझे सौंप दी है....अभी कुछ रोज़ पूर्व ही मुम्बईसे लौटते समय, महामार्ग पे एक नर्सरी दिखी थी...जहाँसे ना, ना करतेभी बेटीने एक पौधा लेही लिया था....शायद ये पौधे ही एक यादोंका सागर बन लहरायेंगे.....वो तो और दूर, और दूर, जिसमानी तौरसे जातीही रहेगी.....एक माँ उसके लिए तरसतीही रहेगी...तरसतेही रहेगी ...ये ममताकी ऐसी अनबुझ प्यास है की जनम जन्मान्तर तक बुझेगी नही....
शमा।
4 comments:
शुक्रवार, 5 जून 2009
आ गयीं..बरखा रानी!!
और बागवानी की वो शाम भी..पिछले जून माह की..... जब मेरी बिटिया साथ थी...और मैंने बागवानी शुरू कर दी थी...
आज वही बिटिया, तन और मन से दूर है...मेरे मनसे नही..लेकिन मै उसके मनसे...अभी,अभी, खिड़कियाँ बंद करके लौटी और लिखने लग गयी....
उस शाम की तरह, मेरी बिटिया रानी, तुझे आजभी दुआएँ देती हूँ...और देते,देते, आँखे भी भी पोंछ लेती हूँ...!
कैसा अजीब मौसम होता है ये...कभी तो बिटिया याद दिला देता है...कभी माँ, और माँ का घर, वो दादा, वो दादी...!...कभी बच्चों का बचपन तो कभी अपना बचपन....! और बचपनका आँगन !
एक आँख से रुलाता है...एकसे हँसाता है...!
समझ नही पा रही, कि, ये बातें, "बागवानी " इस ब्लॉग पे पोस्ट करूँ, या "संस्मरणों"मे....!
गुरुवार, 4 जून 2009
आओ ना, बरखा रानी...!
बोहोत दिनों के बाद इस ब्लॉग पे लिखने बैठी हूँ...दर असल, रुकी थी, कि, बगीचेकी चंद तस्वीरें, लेखके साथ, साथ लगा दूँ, और slides भी...लेकिन ये किसी न किसी कारण हो न पाया...
"बागवानी की एक शाम", इस लेखको जब पोस्ट किया तब, एक चम्पे की दाल लगाई थी...उसपे पहली बार फूल भी खिले हैं...उसकी भी तस्वीर डालना चाह रही थी...
अब फिर एक बार बौछारों के लिए रुकी हूँ...फिर एकबार छोटे गमले, नयी मिट्टी के इंतज़ार में हैं...!
उसी आलेख में मैंने लिखा था," हो सकता है, इससेभी बड़ा कोई सदमा मेरी इंतज़ार में हो.."और सच में उससे भी भयंकर एक सदमा मुझपे आ पडा...लेकिन बहारें, आती जाती रहीँ....हाँ, मेयेभी एक सत्य है,कि, जब, जब मै, सदमों से गुज़री, चंद पौधों ने या तो दम तोड़ दिया, या वोभी मेरे साथ, साथ, सदमों से गुज़रे...!
जब मानसिक कष्ट झेल रही थी,तो, तस्वीरें खींचने के लिए किसे कहती? मनही नही होता..ना उस वक़्त तस्वीरें एहमियत रखतीं...वरना, वाकई, आँखों देखा हाल, कहते हैं जिसे, अपने पाठकों को उससे वाबस्ता कराती ....कि मेरे साथ मेरा ये "परिवार" भी खामोशी से दर्द झेलता रहा...और जिन्हें ये दर्द मंज़ूर ना हुआ, बरदाश्त ना हुआ, वो मुझे छोड़, चल बसे...
मै अपने पाठकों से आग्रह करूँगी, कि, बागवानी को लिखे गर, जिसे जो सवाल, हो मुझसे ज़रूर पूछें, मै हल निकालने की कोशिश ज़रूर करूँगी....हर जगह की मिट्टी और मौसम के अनुसार हल भी अलग, अलग ही होंगे...सबसे ज़रूरी बात ये होती है,कि, पौधों को रोज़ एक निगाह की ज़रूरत होती ही होती है...
सिर्फ़ पानी मिल रहा है या नही, इतनाही देखना काफी नही... ...बल्कि, कहीँ ज्यादा पानी तो नही पड़ रहा ये देखना भी ज़रूरी होता है...जिन्हें कम पानी चाहिए, ऐसे गमलों को अलगसे रखा जाना चाहिए....वरना उनपे फूलों के बदले पत्तेही निकलते रहेंगे!! या जो पौधे "succulent" इस वर्ग में आते हैं, उन्हें भी दिनमे दो बार पानी नही चाहिए...मेरा बगीचा छत पे है, तथा, बोन्साय के काफी पौधे हैं, जिन्हें, गमला छोटा होने के कारण दिन में दो बार पानी आवश्यक होता है...
कई पौधों की जड़ें, गमले के, नीचे,अतिरिक्त पानी निकल जानेके लिए जो छिद्र होते हैं, उनमेसे,बाहर निकल आती हैं...ऐसेमे गर तपी हुई छत से उनका संपर्क आता है, तो पौधे को हानी हो सकती है। इसपे एक आसान उपाय मैंने पाया...मिट्टी के बने, गोल आकार के थाली नुमा गमले/बर्तन मिलते हैं...उन्हें उलटा करके मै हर ऐसे गमलेके नीचे टिका देती हूँ....उपरसे हरी नेट अप्रैल तथा मई के महीनों में ज़रूरी होती है....जून के माह में पहली बौछार पड़ते ही नेट को निकाल तह बना रख लेती हूँ....गर फट गयी हो, तो रखने से पूर्व, अपनी सिलाई की मशीन छत पे निकाल सी लेती हूँ...और फिर धोके, रखवा लेती हूँ...
अब और क्या लिखूँ? "बरखा रानी ! आओ ना, आ जाओना, इतना भी तरसाओ ना, ...के इंतज़ार है एक 'शम्मं ' को तुम्हारा...के इंतज़ार है, इस कुदरत के हर पौधे, हर बूटेको, तुम्हारा... के तुमबिन सरजन हार कौन है इनका?के तुमबिन पालन हार कौन है इनका?"
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
बगीचों की चंद रचनाएँ....
LANDSCAPES I HAVE DESIGNED
घरों तथा बगीचों की जब भी रचना करती हूँ,तो मेरा एक ख़ास बातपे आग्रह रहता है...रख रखाव सुलभ हो, तथा मौसम और मूड के मुताबिक हम उसमे चाहे जब बदलाव ला सकें।
अक्सर बगीचा बनाते समय लोगों की धारणा रहती है: हरियाली और गुलाबों के बिना बगीचा कैसे अच्छा लग सकता है!
हरियाली और गुलाबों के लिए खुली जगह और धूप की ज़रूरत होती है। गुलाबों पे बीमारी भी काफ़ी आती है...ख़ास कर हाइब्रिड क़िस्म के गुलाबों पे। इन सब बातों की पूरी जानकारी और उसके साथ शौक़ ना हो,तो, बेहतर है,कि, गुलाब के ४/५ गमले लगा लें...धूप की दिशाके अनुसार उनकी जगह बदलते रहें।
इस तरीक़े को अपनाने मे भी दिक्कतें होती हैं...।गमला गर वज़न मे भारी हो,तो उसे हिलाना मुश्किल...अलावा इसके, मिट्टी कमसे कम हर दो साल मे , बदलनी होती है..खाद, गुडाई, ये सब समय पे हो तभी गुलाब के पौधे सेहेतमंद रह सकते हैं। इन्हें हरसमय निगरानी और तीखी निगेह बानी की ज़रूरत होती है।
गुलाबों पे लगनेवाले कीटक जन्य रोगों मे से एक है, मीली बग। ये कीडा, जो हवामे उड़ता है, और साँस के ज़रिये फेफडों मे भी जा सकता है, राई के दानेसे १० वा हिस्सा छोटा होता होता है...
इतना छोटा जीव लेकिन इसके बारेमे मै एक बात गौर करके हैरान रह गयी...पौधेकी ऊँचाई, गर इन्सान के क़द से अधिक होती है, तो ऊपरकी पत्तियों , फूलों और डालों पे ये अपना कोष, ऊपरी सतेह पे बनाता है...गर पौधा, क़द मे छोटा होता है, या पौधे के निचले हिस्से मे कोष बनाता है,तो पत्तियों /फूलों/टहनियों के नीचेके हिस्से पे अपना कोष बनाता है...! हरेक पत्ती को, वैसे भी, रोज़ाना ऊपर नीचेसे उलट पुलट के देख लेना ज़रूरी होता है...
ऐसे पौधे की छंटाई भी करें तो उड़ के अन्य किसी पौधेपे बैठ , ये फिर खूब फैलता है। वैसेभी छटाई करते वक्त हर कली, पत्ती या टहनी सीधे किसी थैली मे डाल देना ज़रूरी है। काट ने के बाद गर उसे वहीँ पड़ा छोड़ दें तो चंद घंटों मे ये जीव अपना परिवार बढ़ा लेता है ! कहीँ से गर, एकाध टहनी की खाल भी उतर गयी हो,तो, उसके नीचे घुस, ये कीडा जड़ों तक फैल जाता है।
गुलाब के पौधे पे गर हम छटाई करने का तरीक़ा अपनाते हैं, तो गुलाब बढेगा कैसे ? गुलाब की छंटाई का एक ख़ास मौसम होता है, अन्य, साधारण, पौधों की भाँती, इसकी जब चाहें तब छंटाई कर नही सकते। इसके अलावा, गुलाब का पौधा अपने आप मे सुंदर नही होता....इसलिए, जब उसपे फूल नही होते तो वो आकर्षित नही करता। जिनके पास घरके पिछवाडे मे जगह हो,तथा जानकार माली रखने की हैसियत हो, ऐसे ही लोगों ने गुलाब या तत्सम , नाज़ुक पौधों को अपने बगीचे मे लगाना चाहिए, वरना, गुलाब के कारन, सारे बगीचे को नुकसान पोहोंच जाता है।
हरियाली मे से जंगली घाँस हर थोड़े दिनों से निकलना ज़रूरी होता है। बोहोत ही शौक़ हो तो, चार कुर्सिया और एक छोटा टेबल रख ने जितनी जगह पे हरियाली लगायें...और टेबल कुर्सी वहाँ तभी लाएँ, जब बैठना हो...अन्यथा, जहाँ, टेबल कुर्सी की छाया पड़ेगी, या दबाव पडेगा, वहाँ, हरियाली नष्ट होने लगेगी।
जैसे, गृह सज्जा/ designing मे texture बोहोत सुन्दर लगता है, बगीचे मे भी उतनाही सुंदर लगता है। texture लाने के कई आसान तरीक़े अपनाए जा सकते हैं...
रेतीका भी प्रयोग बगीचे मे "texture" लाने के लिए किया जा सकता है।
( मैंने अपनी ओरसे तो वर्तनी बड़े गौरसे संपादित की है। गर कुछ रह गया हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ ! एक बड़ी मज़ेदार गलती मुझसे लगातार हुई थी...जिसे माँ को पढ़ के सुनाया तो,वो हँस-हँस के लोट पोट हो गयीं...!
मैंने "पत्तियों " की बजाय, हर बार, अनजाने मे "पती" टाइप किया था...ख़ास कर वहाँ, जहाँ मै मीली बग के बारेमे लिख रही थी...)
अलग, अलग शेहरोंमे हुए तबादलों के समय, मैंने बनाये कुछ बगीचे...जिन्हें कढाई मे तब्दील करनेके लिए रुकी हूँ...कई तो कर चुकी हूँ...दुर्भाग्यवश उनकी तस्वीरें नही निकालीं....
शुक्रवार, 6 मार्च 2009
बागवानी की एक शाम.......
Thursday, June 5, 2008
बागवानी की एक शाम....
परसों शाम मानसून पूर्व बौछार हाज़री लगा गयी । मेरी बेटी,जो अमेरिकासे आई हुई है,मुझसे काफ़ी बार कह चुकी थी कि मैं अपने टेरेस गार्डन मे कुछ बेलें लगाऊँ । वो जाके गमलेभी लेके आई। कुछ पौधों के नाम मैंने ही उसे लिख दिए थे।
वैसे मुझे बागवानी का हमेशा से शौक रहा है। कुछ सालों से परिवार कुछ इसतरह बिखरा कि, मेरे कई शौक मन मसोस के रह गए। लगता,किसके लिए खाना बनाऊँ ?किसके लिए फूल सजाऊँ?किसके लिए मेरे घरका सिंगार करूँ?किसके लिए अपनी बगिया निखारुं?
कई सारे बोनसाई के पौधे, जिन्होंने कई पारितोषिक जीते थे, मेरी इन्तेज़ारमे थे। मैं थी कि , पास जाके लौट आती। हर वक्त सोचती फिर कभी करुँगी इनकी गुडाई, फिर किसी दिन खाद दूँगी।
हाँ,आदतन, सिर्फ़ एक चीज़ मैं नियमसे ज़रूर करती और वो यह कि घर हमेशा बेहद साफ सुथरा रखती। परदे धोना, नए परदे लगना, हाथसे सिली, टुकड़े जोडके बनाई हुई चद्दरे बिछाना, दरियाँ धोके फैलाना, घरका कोना,कोना इस तरहसे सजाना मानो किसीके इन्तेज़ारमे नव वधु सजी सँवरी बैठी हो......अंदरसे उत्साह ना होते हुएभी....
पर ना अपनी कलाकी प्रति मन आकर्षित होता ना लेखनके प्रति। कुछ करनेका उत्साह आता तो वो देर शामको....वरना सुबह ऐसी घनी उदासी का आलम लिए आती कि लगता ये क्यों आयी ??अपने घरमे झाँकती किरने मुझे ऐसी लगती जैसे अँधेरा लेके आई हो।
परसों दोपहर जब बूँदें बरसने लगी, तो मैं खिड़कियाँ बंद करने दौड़ी। अचानक मेरा ध्यान उन खाली गमलोंकी ओर गया। यही वक्त है इनमे मिटटी डालनेका, पौधे लगानेका!!मैं दौडके पडोसमे गई, वहाँसे एक चम्पेकी ड़ाल ले आई। बस शुरुआत हो गई। भाईके घरसे गुलाबी चम्पेकी दो और डालें ले आई। गमले भरे गए। उनमे पानी डाला और चम्पेकी डाले लगा दी।
दूसरे दिन बिटिया कुछ और गमले और बेलोंके पौधे ले आई। कल और आज शाम को मेरी बागवानी जारी रही। सब हो जानेके बाद, टेरेस को खूब अच्छी तरहसे धो डाला। मुद्दतों बाद लगा कि मैंने अपने जीवनसे हटके किसी और ज़िंदगी की तरफ़ गौर किया हो.......
इन पौधोंको अब नई पत्तियाँ फूट पड़ेंगी। ड़ाले जड़े पकड़ लेंगीं । एक नई ज़िंदगी इनमे बसने आएगी, जिसे मैं रोज़ बढ़ते हुए देखूँगी, जैसे कि पहले देखा करती थी। अपने पुराने पौधोंकी मिटटी बदल डालूँगी....उनमेभी एक नए जीवनका संचार होगा...बेलोंको चढाने की तरकीबें सोचते हुए शाम गहरा गई।
ऐसा नही कि ,सुबह्की उदासी ख़त्म हुई,पर शाम की खुशनुमा याद लेके सुबह ज़रूर आएगी,ये विश्वास मनमे आ गया। येभी नही कि मेरी परेशानियाँ सुलझ गई। लेकिन लगा कि शायद ये दौरभी गुज़रही जायेगा। हो सकता है,जैसे कि पहलेभी हुआ था, कोई औरभी ज़्यादा मुश्किल दौर मेरे इन्तेज़ारमे हो। पर उसके बारेमे सोच के मनही मन डरते रहना ये कोई विकल्प तो नही, दिमागमे ये बातभी कौंध गई।
कलको बिटिया लौट जायेगी अपने घर, बरसात का मौसम बीत जाएगा, पर जब इन पौधोंको देखूँगी तो उसकी याद आँखें नम कर जायेगी। बिटिया,तुझे लाख, लाख दुआएँ!!
3 टिप्पणियाँ:
- छत्तीसगढिया .. Sanjeeva Tiwari said...
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पर्यावरण दिवस के शुभ अवसर पर आपकी भावनायें सुखद लगीं । धन्यवाद ।
- June 5, 2008 10:21 AM
- Udan Tashtari said...
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भावुक कर दिया आपने.
निश्चित ही कल सुनहरा होगा-आँखे नम तो याद से होना माँ का स्वभाव है किन्तु यही नव सृजन आपके चेहरे पर मुस्कराहट भी लायेंगे और बहुत सुकुन भी पहुँचायेंगे.
शुभकामनाऐं. - June 5, 2008 5:56 PM
- बाल किशन said...
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सच सीधे शब्दों मे लिखी आपकी ये पोस्ट दिल को छू गई.
और बहुत ही सम सामायिक भी बनी है.
बधाई. - June 6, 2008 12:01 AM
भावपूणॆ लेखन । आपने बागबानी से दिल के उस लम्हे को याद कर दिया जो मेरे जीवन की एक त्रासदी है । खैर मनुष्य के जीवन में कुछ ऐसी घटनाए हो जाती है जो जीवन भर सालता रहता है । आपने वहुत सुन्दर टिप्पणी लिखी । शुक्रिया
dost bahut sundar likha hai...likhte raho...or haan mere blog par aapka swagat hai....
Jai HO Mangalmay HO
JILAYE RAKHNA USE VO NAHEEN HAI BAS PAUDHA.
USME SHAMIL HAI BADEE KHUSHBUYEN UMMEEDON KEE.
बागवानी नहीं
भाववाणी है यह
भावों को लिखा है
इतना गहरा आपने
ज्यों जड़ हों पौधों की
वृक्षों की, अमृत पुष्पों की
अच्छा लिखा है आपने
सच्चा लिखा है आपने।