बुधवार, 24 जून 2009

बगीचे..रचनात्मक यादें...!

बगीचों की चंद रचनाएँ....

Parts of some of my prize winning landscapes waiting to be converted into embroideries.


घरों तथा बगीचों की जब भी रचना करती हूँ,तो मेरा एक ख़ास बातपे आग्रह रहता है...रख रखाव सुलभ हो, तथा मौसम और मूड के मुताबिक हम उसमे चाहे जब बदलाव ला सकें।

अक्सर बगीचा बनाते समय लोगों की धारणा रहती है: हरियाली और गुलाबों के बिना बगीचा कैसे अच्छा लग सकता है!

हरियाली और गुलाबों के लिए खुली जगह और धूप की ज़रूरत होती है। गुलाबों पे बीमारी भी काफ़ी आती है...ख़ास कर हाइब्रिड क़िस्म के गुलाबों पे। इन सब बातों की पूरी जानकारी और उसके साथ शौक़ ना हो,तो, बेहतर है,कि, गुलाब के ४/५ गमले लगा लें...धूप की दिशाके अनुसार उनकी जगह बदलते रहें।

इस तरीक़े को अपनाने मे भी दिक्कतें होती हैं...।गमला गर वज़न मे भारी हो,तो उसे हिलाना मुश्किल...अलावा इसके, मिट्टी कमसे कम हर दो साल मे , बदलनी होती है..खाद, गुडाई, ये सब समय पे हो तभी गुलाब के पौधे सेहेतमंद रह सकते हैं। इन्हें हरसमय निगरानी और तीखी निगेह बानी की ज़रूरत होती है।

गुलाबों पे लगनेवाले कीटक जन्य रोगों मे से एक है, मीली बग। ये कीडा, जो हवामे उड़ता है, और साँस के ज़रिये फेफडों मे भी जा सकता है, राई के दानेसे १० वा हिस्सा छोटा होता होता है...

इतना छोटा जीव लेकिन इसके बारेमे मै एक बात गौर करके हैरान रह गयी...पौधेकी ऊँचाई, गर इन्सान के क़द से अधिक होती है, तो ऊपरकी पत्तियों , फूलों और डालों पे ये अपना कोष, ऊपरी सतेह पे बनाता है...गर पौधा, क़द मे छोटा होता है, या पौधे के निचले हिस्से मे कोष बनाता है,तो पत्तियों /फूलों/टहनियों के नीचेके हिस्से पे अपना कोष बनाता है...! हरेक पत्ती को, वैसे भी, रोज़ाना ऊपर नीचेसे उलट पुलट के देख लेना ज़रूरी होता है...

ऐसे पौधे की छंटाई भी करें तो उड़ के अन्य किसी पौधेपे बैठ , ये फिर खूब फैलता है। वैसेभी छटाई करते वक्त हर कली, पत्ती या टहनी सीधे किसी थैली मे डाल देना ज़रूरी है। काट ने के बाद गर उसे वहीँ पड़ा छोड़ दें तो चंद घंटों मे ये जीव अपना परिवार बढ़ा लेता है ! कहीँ से गर, एकाध टहनी की खाल भी उतर गयी हो,तो, उसके नीचे घुस, ये कीडा जड़ों तक फैल जाता है।

गुलाब के पौधे पे गर हम छटाई करने का तरीक़ा अपनाते हैं, तो गुलाब बढेगा कैसे ? गुलाब की छंटाई का एक ख़ास मौसम होता है, अन्य, साधारण, पौधों की भाँती, इसकी जब चाहें तब छंटाई कर नही सकते। इसके अलावा, गुलाब का पौधा अपने आप मे सुंदर नही होता....इसलिए, जब उसपे फूल नही होते तो वो आकर्षित नही करता। जिनके पास घरके पिछवाडे मे जगह हो,तथा जानकार माली रखने की हैसियत हो, ऐसे ही लोगों ने गुलाब या तत्सम , नाज़ुक पौधों को अपने बगीचे मे लगाना चाहिए, वरना, गुलाब के कारन, सारे बगीचे को नुकसान पोहोंच जाता है।

हरियाली मे से जंगली घाँस हर थोड़े दिनों से निकलना ज़रूरी होता है। बोहोत ही शौक़ हो तो, चार कुर्सिया और एक छोटा टेबल रख ने जितनी जगह पे हरियाली लगायें...और टेबल कुर्सी वहाँ तभी लाएँ, जब बैठना हो...अन्यथा, जहाँ, टेबल कुर्सी की छाया पड़ेगी, या दबाव पडेगा, वहाँ, हरियाली नष्ट होने लगेगी।

जैसे, गृह सज्जा/ designing मे texture बोहोत सुन्दर लगता है, बगीचे मे भी उतनाही सुंदर लगता है। texture लाने के कई आसान तरीक़े अपनाए जा सकते हैं...

यहाँ पे लगी पहली तस्वीर मे गौर करें तो वहाँ पे मैंने, मिट्टी का सुराही दार मटका रक्खा है...अतराफमे,( नीचे की ओर) मरमरी फर्श के टुकड़े तथा नदी मे मिलने वाले सफ़ेद गोल पत्थर डालें हैं...उनपे, पीछे लगे गुलमोहर के पंखुडियाँ झड़ी हैं।

इन फर्श के टुकडों के बाहरी छोर से , एक और बड़े,बड़े, पत्थर रचाके क्यारी बनायी है। उस क्यारी और हरियाली को छूने वाली क्यारी के बीछ अलग,अलग किस्म के पौधे और घाँस लगा रखी है। इनपे फूल नही आते, लेकिन, पत्तों के रंग और texture इतना भिन्न ,भिन्न होता है,कि, क्यारी का हर कोना देखने वाले की नज़र आकर्षित कर सकता है। क्यारी भी मैंने टेढी मेढ़ी बना रखी है।

मटके को एकदम से सटके जो घाँस है, उसे "pampas grass"कहते हैं( जिसपे भुट्टे की तरह फूल दिख रहे हैं)। ऐसी "ornamental" घाँस के कई प्रकार होते हैं।

क्यारी मे नज़र आनेवाले पौधों मे रिबन ड्रेसीना के कुछ प्रकार हैं। "anthuriam "इस प्रकार की घाँस बाहरी क्यारी के पत्थरों के बीच लगाई हुई है।

Colius नमक पौधा अपने रंगीन पत्तियों के लिए मशहूर है। आज कल इस पौधेको सैंकडों रंगोमे पाया जाता है। इसकी ५/६ इंच की टहनी काट के मिट्टी मे लगा दें, तो ये जड़ें पकड़ लेता है। इसपे जैसेही फूल नज़र आए, उसकी छटाई कर देनी चाहिए, वरना ये मर जाता है।

"Spider plant" नामक पौधा , पर्यावरण मे से प्रदूषण सोख लेता है। इसकी गुत्थियाँ उगती रहती हैं, और ये बढ़ता रहता है। bamboo grass भी बोहोत सुन्दर लगती है, और इसे अपनी मर्ज़ीके मुताबिक, आकार दिए जा सकते हैं। येभी तेज़ीसे बढ़ती है। इस तरह के पौधे, साथ, साथ लगायें जाएँ तो एक एकरसता नही लगती ...विविधता लगती है। पेड़-पौधों के लगवानी/ बागवानी मे वैसेभी 'mono culture'नही होना चाहिए...अलग,अलग किस्म के पेड़ पौध, एकसाथ होते हैं, तो उनपे लगनेवाली कई बीमारियाँ/रोग, अपने आप दूर हो जाते हैं...Poly culture ये बेहतरीन उपाय है !


मेरा अपना अनुभव है,कि, तुलसी( विशेषकर, श्यामा तुलसी) lantana( इसके लिए हिन्दी शब्द मुझे नही पता), कढ़ी पत्ता, गेंदा, और तत्सम पौधे , जिनका उग्र गंध होता है, अपने आस पास लगे पौधों को कई रोगों से बचा लेते हैं। छज्जों पे बागवानी करनी हो तो हर गमलेमे, चंद तुलसी या गेंदे के बीज डाल देने चाहियें...जड़ों तथा पौधों मे लगने वाली कीटक जन्य बीमारियों से कुछ तो राहत मिल ही जाती है।

सब्जियाँ भी जब हम लगाते हैं( kitchen garden चाहे हो), ध्यान रखना चाहिए,कि, गर( मिसाल के तौरपे), हमें ४ क्यारियाँ पालक की लगानी हैं, तो हर क्यारी के बीछ, लहसुन, प्याज़ या अन्य कोई सब्ज़ी की क्यारी हो...पत्तों पे लगने वाली कई बीमारियाँ, क़ुदरत अपने आपही दूर कर देती है....इसीलिए गौर तलब है, कि, कुदरतन उगे जंगल-वनोंमे हमेशा भिन्न भिन्न प्रकार की जाती प्रजातियाँ होती हैं..वहाँ कौन कीटक नाशक छिड़कने जाता है?

रेतीका भी प्रयोग बगीचे मे "texture" लाने के लिए किया जा सकता है।

तालाब तथा बारिशमे इकट्ठे हुए पानी मे " राम बाण" नामक एक घाँस उगी मिलती है। उपरसे दूसरी तस्वीर मे, इसे मैंने एक छोटा-सा "pond" बनाके, उसमे लगा दिया था..तलिए मे मिट्टी है...पर मिटते डालने से पूर्व, सिमेंट लगा के अच्छी तरह water प्रूफिंग कर ली थी।

इस घाँस के जो भुट्टे नुमा फूल होते हैं, इनका गज़ब औषधीय महत्त्व है। इसीलिये नाम "राम बाण" पडा है। ये भुट्टे नुमा फूल जब फटते हैं, तो उस भूसे को डिब्बे या बोतल मे रखा जा सकता है। गहरे घाव पे, जहाँसे ज़ोरदार रक्तस्राव हो रहा हो, उसमे ठूंस दिया जाय तो खून बहना रुक जाता है। खेतों मे काम करने वाले मजदूरों के लिए तो ये बेहद कारगर उपाय है। फर्स्ट aid के तौर पे बेमिसाल...डॉक्टर के पास पोहोंच ने तक,अतिरिक्त रक्तस्राव रोका जा सकता है।

एक और कारगर उपाय होता है,( तीक्ष्ण घाव हो तो,): दवाई की दूकान मे उपलब्ध surgical cotton को चिमटे मे पकड़, गैस की सिगडी पे जला लेना और घाव मे ठूँस देना। जलने के कारण रूई, निर्जन्तुक तो होही जाती है...खैर,ये थोडा विषयांतर हो गया...!

इसी गोलाकार बगीचेकी रचना मे, एक और गड्ढा बनाके,उसमे छोटा electric पम्प लगा लिया...उसे फर्शके टुकड़े से ढँक के, उपरसे एक गमला रख दिया। शाहबादी फर्श का चौकोर उसके ऊपर रख दिया..जिस के कारण पम्प नज़र नही आता था..और उस फर्श पे एक गमला...

पम्प चलने पे,उस pond मे से पानी खींचा जाता, और सुराहीदार मटके के मूहमेसे छलक, दोबारा उसीमे गिरता...ऐसी रचना को "water scupture" कहा जाता है। खैर, मैंने इसका बोहोत ही कम खर्चीला तरीक़ा अपनाया...ये पम्प भी, बिना इस्तेमाल के पड़ा हुआ था, उसका इस्तेमाल हो गया...

सफ़ेद पेंट किया हुआ "बर्ड हाउस" जो एक लकडी के खंभे पे लगा है, उसमे स्विच बोर्ड है(ऊपर से तीसरी तस्वीर)....जिसमे पम्प का स्विच है....पम्पके पीछे "dry water fall", पत्थरों के ज़रिये रचा था...उसपे फाइबर से बने लैंप रखे थे...जो दिनमे पत्थरकी तरह दिखते थे, रात मे उनमे बल्ब जलाये जा सकते थे...इन सभी के स्विच, उसी "बर्ड हाउस" मे थे...

ये गोलाकार रचना, "ड्राइव वे" के बीच, जहाँ से बाईं ओरसे गाडी आती और बंगलेके पोर्च मे जाती...निकलते समय, दाहिनी ओरसे निकल सकती। तीसरी तस्वीर मे आप उस बड़े-से ,दो मंज़िले मकान का पोर्च तस्वीर देख सकते हैं.....नासिक मे स्थित महाराष्ट्र पुलिस अकादमी के director का ये मकान है। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, इस मकान को बने १०० साल पूरे हो चुके हैं।

जहाँ एक लकडी की पुलिया दिखाई पड़ती है, वहाँ भी मैंने एक छोटा-सा pond बनाके,पुराने बरगद आदी के पेडों पे उल्टे मटके लटका दिए थे...जिसमे बल्ब लगा रखे थे..."hanging lamps" का मुझे सबसे सस्ता और सरल तरीक़ा लगा था।

इसी मकान मे रहते ,पुलिस सायंस कांग्रेस का आयोजन हुआ था, जिसे महाराष्ट्र पुलिस अकादमी ने अपना यजमान पद दिया था...बगीचे के बारेमे सबसे बढिया compliment मुझे मिला था....हरदिल अज़ीज़, व्यंग चित्रकार R . K . Laxman द्वारा...Laxman बेहद मुँह फट व्यक्ती जाने जाते हैं..गर उन्हें कोई जगह या आयोजन अच्छा नही लगता, तो बेहिचक कह देते हैं! दिखावे की तारीफ़ तो बाद की बात...सवाल ही नही उठता...!



आखरी तस्वीर, जिसमे टेढी मेढ़ी पगडंडी-सी एक कुटिया के पास जाती नज़र आती है...उसके किनारे ज़मीं कंद लगाया हैं...ये दो रंगों मे उपलब्ध होता हैं, एक हरा, जो तस्वीर मे नज़र आ रहा है, दूसरा जामुनी..(पत्तोंके रंग के बारे मे लिख रही हूँ)...हर कुछ हफ्तों से इन्हें उखाड़, ज़मीं कंद निकाले जा सकते हैं... ६/७ इंच के तुकडे मिट्टी मे लगा दें, तो नए सिरेसे ये " ग्राउंड कवर" फ़ैल जाती है...और खूब तेजीसे बढ़ती है...जामुनी रंग की साथ ना लगायें तो बेहतर...हरे रंग की बेल उसे बढ़ने या फैलने नही देती...दबा देती है। इस पौधे को गमलों मे नही लगाया जा सकता, नाही बेल की तरह, किसी मंडवे पे चढ़ा सकते हैं...नाम परसे ही ये खासियत ज़ाहिर है..!

( मैंने अपनी ओरसे तो वर्तनी बड़े गौरसे संपादित की है। गर कुछ रह गया हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ ! एक बड़ी मज़ेदार गलती मुझसे लगातार हुई थी...जिसे माँ को पढ़ के सुनाया तो,वो हँस-हँस के लोट पोट हो गयीं...!

मैंने "पत्तियों " की बजाय, हर बार, अनजाने मे "पती" टाइप किया था...ख़ास कर वहाँ, जहाँ मै मीली बग के बारेमे लिख रही थी...)








अलग, अलग शेहरोंमे हुए तबादलों के समय, मैंने बनाये कुछ बगीचे...जिन्हें कढाई मे तब्दील करनेके लिए रुकी हूँ...कई तो कर चुकी हूँ...दुर्भाग्यवश उनकी तस्वीरें नही निकालीं....

शुक्रवार, 12 जून 2009

बगीचों चंद रचनाएँ...

" बगीचों की चंद रचनाएँ" इस पुरानी पोस्ट पे पोस्ट की तस्वीरों के तहेत, उन बगीचों और पौधों के बारेमे लिखा है...

गुरुवार, 11 जून 2009

एक दोपहर...बागवानीकी......

पिछले वर्ष मैंने" बागवानी की एक शाम" ये छोटी-सी यादगार लिखी थी...उस बातको तकरीबन १० माह हो गए।
अब "बागवानी" ये नया ब्लॉग बना लिया।

आज नेट पे बैठी तो चंद ही रोज़ पहलेकी एक दोपहर याद आ गयी....पिछ्ला बसंत बिना किसी बागवानीके बीत गया था...और येभी बीत जा रहा था...पिछले साल बरसात शुरू हुई तब अपने बगीचेकी और नज़र पडी और मै होशमे आ गयी कि मेरे पौधों को मेरी निहायत ज़रूरत है...बेचारे बेज़ुबाँ कुछ कह नही सकते, मुझे आवाज़ नही देते....लेकिन, ज़ाहिर कर रहे थे, मूक खड़े, खड़े कि, उनकी सेहेत बिगड़ती जा रही है...उन्हें ज़रूरत है एक प्यारभरी निगरानी की...निगेह्बानीकी...

उस शाम,पिछले वर्ष, मेरी बिटिया मेरे साथ थी...कुछ अरसे बाद लौट गयी थी..अपने घर.......कुछ नए पौधे उसके साथ उस शामको लगानेकी शुरुआत की थी..

थी तो उस दोपेहेरकोभी..... लेकिन दोबारा आके बस २/३ दिनों में अपने घर लौट जानेवाली थी....मै मनही मन उदास थी...चाहे वो अपने घर राज़ी खुशी लौट रही थी, पर मुझसे जा तो बोहोत दूर रही थी....परदेस....जो मेरे पोहोंचके बाहर था...है...

वो मेरेही कमरेमे सो रही थी और मै बाहर निकल आयी....छज्जेपे हमारी बैठक सेही एक नज़र दौडाई....परिन्दोंकी आवाजें सुनाई दे रही थीं....बजे तो दोपेहेरके ४ ही थे...उनके बर्तन में पानी तो ६ बजेके करीब पड़ता था, लेकिन इन्तेज़ारमे थे। दरवाज़े के ठीक सामनेवाले कठरेपे पँछी बैठे हुए दिखे...क़तारमे....जैसेही मैंने दरवाजा खोला, उडके उस मिट्टीके बर्तन के पास चले गए, जिसमे मै उनके लिए पानी रखा करती हूँ....ओह!!समझी....!!गरमी के कारन पानी तप गया होगा...हर गरमीके मौसम में ये परिंदे ऐसाही तो करते हैं...मैही भूल जाती हूँ...

मैंने वो बर्तन उठाया और छज्जेपे लगा नलका खोला...उफ़! उसमेसे तपा हुआ पानी आ रहा था...! मै रसोईमे गयी और वहाँसे बोतल लेके लौटी। पानी ठंडा था...मैंने बर्तन में उँडेल दिया....और थोड़ा परे हट गयी....बारी, बारी कितनेही परिंदे आते रहे...मैना, फाखते, बुलबुल, कबूतर, कौव्वे, sunbirds, औरभी कई...हाँ...गोरैय्या को मुद्दतें हो गयी हैं देखे हुए..उनकी तो जाती ही नष्ट होते जा रही है...और वजह है हमारा बेहिसाब कीटक नाशक का छिडकाव....मै नही डालती लेकिन अतराफमे हर दूसरा डालताही है...

पिछले सालसे इस सालतक मैंने गौर किया कि इतनी तरह ,तरहकी बीमारियाँ, जो मेरे पौधोंपे लगीं, मैंने ज़िन्दगीमे कभी नही देखी थी....पिछले साल मै पहली बार मिट्टी खरीद्के लाई थी....तबतक मिट्टी मैही बनाती थी...किसी खेतसे लाल मिट्टी ले आती, गोबरका खाद और ईटोंका चुरा मिलाके मिट्टी खुदही बनाती....वो जो मिट्टी लाई, उसके साथ ना जानूँ, कितनीही बीमारियाँ मेरे पौधों में लग गयीं...एक माह के अन्दर मुझे तकरीबन १५० पौधों की मिट्टी ३ बार बदल देनी पडी...अंतमे जो मिट्टी मै खरीदके लाई, उसे पहले मैंने एक बड़े बर्तन मे तपा लिया और फिर इस्तेमाल किया...पूरी रात मै मशागत में लगी रही थे...सुबह होते, होते, थकके लेट गयी थी!!

जडोंमे लगे कीडों के लिए मैंने हर गमलेमे गेंदेके बीज डाले...एक ख़ास किस्मका कीडा( बाल जैसा बारीक और एकदम छोटा)गेंदेकी गंधसे दूर रहता है। कितनीही हिकमतें कीं.... कुछ तो बेहद सुंदर और पुराने बोनसाई के पेड़ मरभी गए, बार बार जड़ें हिल जानेके कारण...अफ़सोस हुआ बोहोत, पर क्या कर सकती थी??एक ज़माना था, जब मै तम्बाकू के पौधे पानीमे उबालके/या भिगोके, उसका पौधों पे छिडकाव करती थी। यहाँ कहाँसे लाऊँ? फिरभी तलाशमे लगी हूँ...

उस दिनपे लौट चलती हूँ....उस रोज़, कितने अरसे बाद मुझे परिन्दोंकी आवाजें अच्छी लगीं....उन्हें तो जैसे मै सुननाही भूल गयी थी...जैसे अपने पौधोंकी पुकार मुझे सुनाई नही दे रही थी...और सिर्फ़ पौधे नही, उनकी दास्ताँ तो परिंदे मुझे सुनाया करते थे...!इनके गीत सुनना क्यों छोड़ दिया मैंने?के इनकी रहनुमाई भी मै भूल गयी...?हाँ, रहनुमाई....जो ये परिंदे हमेशा किया करते थे....उसी बारेमे लिखने जा रही हूँ...और रहनुमाई तो इन परिंदों ने ढेर सारी बातों में की है...किन, किन बातोंको याद कर दोहराऊँ??मुझे तो पता नही कितनी सदियाँ पीछे जाना होगा??

मै हमेशा, एक दूरीसे अपने पौधोंको चुपकेसे निहारती...जिन, जिन पौधोंपे परिंदे बैठते, मै बादमे उन सबके पास जाती और उन गमलोंको, उनमे बढ़ रहे पौधोंके फूल और पत्तियोंको, खूब गौरसे देखा करती....उनपे हमेशा मुझे किडोंका और बीमारीका अस्तित्व नज़र आता...मै उन पौधों के पत्ते हटा देती( अब भी वही करती हूँ)। गुडाई करके देखती कि , मिट्टी तो ठीक है...उनकी जगह बदल देती...गमलोंके नीचे गर पानी नही सूखता तोभी बीमारी आही जाती है...जड़ें सड़ने लगती हैं...

उस दोपहर मैंने यही सब शुरू कर दिया। एक बात जान गयी हूँ...गर मै अपने बगीचेसे ३ दिन दूर रहती हूँ, तो दस दिनोंका काम इकट्ठा हो जाता है...बीमारी, दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगती करती है।
देखा तो चंद दिनों पहले, अपनी पूरी बहारपे लदी रातकी रानी, ९० प्रतिशतसे अधिक, मीली बग से भर गयी थी....उसे तकरीबन जड़ों तक मुझे छाँट देना पडा.....फिलहाल तो शुक्र है कि उसकी जान तो बच गयी है....

बागवानी करते समय, मै हरबार प्लास्टिक की थैलियाँ अपने साथ रखती हूँ( वैसे प्लास्टिक से मुझे चिढ है...)....और छाँटी हुई टहनियाँ, पत्ते आदि सब उसमे बंद कर लेती हूँ...तभी कूडेदान में फेंकती हूँ। उस बेल को इस तरह से छाँटते हुए बड़ा दुःख हुआ...कुछही रोज़ तो हुए थे अभी, जब इसके सुगंधने पूरा छज्जा महकाया था....जनवरी या फरवरी??मैंने कबसे इस बेल को नज़रंदाज़ कर दिया था??इतने दिन हो गए??

उस दोपेहेरको जो मै अपनी बगीचेमे लगी तो रातके १० बजेतक लागीही रही....सिर्फ़ एकबार अन्दर जाके अपने लिए लस्सी ले आयी। और अपने पौधों से वादा करके ही अन्दर गयी , अबकी बार मुझे माफ़ कर दें...फिर ऐसी गलती, जान बूझके तो नहीही करूँगी....

बिटिया तो चली गयी...फिर एकबार उसने अपनी धरोहर मुझे सौंप दी है....अभी कुछ रोज़ पूर्व ही मुम्बईसे लौटते समय, महामार्ग पे एक नर्सरी दिखी थी...जहाँसे ना, ना करतेभी बेटीने एक पौधा लेही लिया था....शायद ये पौधे ही एक यादोंका सागर बन लहरायेंगे.....वो तो और दूर, और दूर, जिसमानी तौरसे जातीही रहेगी.....एक माँ उसके लिए तरसतीही रहेगी...तरसतेही रहेगी ...ये ममताकी ऐसी अनबुझ प्यास है की जनम जन्मान्तर तक बुझेगी नही....
शमा।

4 comments:

VisH said...

dost bahut sundar likha hai...likhte raho...or haan mere blog par aapka swagat hai....

Jai HO Mangalmay HO

RAJ SINH said...
This post has been removed by a blog administrator.
'sammu' said...

JILAYE RAKHNA USE VO NAHEEN HAI BAS PAUDHA.
USME SHAMIL HAI BADEE KHUSHBUYEN UMMEEDON KEE.

अविनाश वाचस्पति said...

बागवानी नहीं
भाववाणी है यह
भावों को लिखा है
इतना गहरा आपने
ज्‍यों जड़ हों पौधों की
वृक्षों की, अमृत पुष्‍पों की
अच्‍छा लिखा है आपने
सच्‍चा लिखा है आपने।

शुक्रवार, 5 जून 2009

आ गयीं..बरखा रानी!!

कलही बरखा रानी को याद किया और आज बरस रही हैं...नीचे बच्चे खूब भीग भीग के शोर मचा रहे हैं..बादल गरज रहे हैं, और मुझे अपने बचपनकी बारिश, बचपन का आँगन, और बचपन का घर इस शिद्दत के साथ याद आ रहा है...

और बागवानी की वो शाम भी..पिछले जून माह की..... जब मेरी बिटिया साथ थी...और मैंने बागवानी शुरू कर दी थी...
आज वही बिटिया, तन और मन से दूर है...मेरे मनसे नही..लेकिन मै उसके मनसे...अभी,अभी, खिड़कियाँ बंद करके लौटी और लिखने लग गयी....
उस शाम की तरह, मेरी बिटिया रानी, तुझे आजभी दुआएँ देती हूँ...और देते,देते, आँखे भी भी पोंछ लेती हूँ...!

कैसा अजीब मौसम होता है ये...कभी तो बिटिया याद दिला देता है...कभी माँ, और माँ का घर, वो दादा, वो दादी...!...कभी बच्चों का बचपन तो कभी अपना बचपन....! और बचपनका आँगन !
एक आँख से रुलाता है...एकसे हँसाता है...!
समझ नही पा रही, कि, ये बातें, "बागवानी " इस ब्लॉग पे पोस्ट करूँ, या "संस्मरणों"मे....!

गुरुवार, 4 जून 2009

आओ ना, बरखा रानी...!

बोहोत दिनों के बाद इस ब्लॉग पे लिखने बैठी हूँ...दर असल, रुकी थी, कि, बगीचेकी चंद तस्वीरें, लेखके साथ, साथ लगा दूँ, और slides भी...लेकिन ये किसी न किसी कारण हो न पाया...


सर्दियों में खिलने वाले फूल ख़त्म हो गए,तो उन गमलों की मिट्टी मैंने पूरी गर्मीभर सुखा ली। कुछ रोज़ पूर्व, जो बड़े गमलें हैं, जिनमे मैंने और बिटियाने बेलें लगाईं थीं, उसमे गोबर का खाद मिलाके पलट दी....उन पौधों में मानो एक नयी जान आ गयी !

"बागवानी की एक शाम", इस लेखको जब पोस्ट किया तब, एक चम्पे की दाल लगाई थी...उसपे पहली बार फूल भी खिले हैं...उसकी भी तस्वीर डालना चाह रही थी...

अब फिर एक बार बौछारों के लिए रुकी हूँ...फिर एकबार छोटे गमले, नयी मिट्टी के इंतज़ार में हैं...!
उसी आलेख में मैंने लिखा था," हो सकता है, इससेभी बड़ा कोई सदमा मेरी इंतज़ार में हो.."और सच में उससे भी भयंकर एक सदमा मुझपे आ पडा...लेकिन बहारें, आती जाती रहीँ....हाँ, मेयेभी एक सत्य है,कि, जब, जब मै, सदमों से गुज़री, चंद पौधों ने या तो दम तोड़ दिया, या वोभी मेरे साथ, साथ, सदमों से गुज़रे...!

जब मानसिक कष्ट झेल रही थी,तो, तस्वीरें खींचने के लिए किसे कहती? मनही नही होता..ना उस वक़्त तस्वीरें एहमियत रखतीं...वरना, वाकई, आँखों देखा हाल, कहते हैं जिसे, अपने पाठकों को उससे वाबस्ता कराती ....कि मेरे साथ मेरा ये "परिवार" भी खामोशी से दर्द झेलता रहा...और जिन्हें ये दर्द मंज़ूर ना हुआ, बरदाश्त ना हुआ, वो मुझे छोड़, चल बसे...

मै अपने पाठकों से आग्रह करूँगी, कि, बागवानी को लिखे गर, जिसे जो सवाल, हो मुझसे ज़रूर पूछें, मै हल निकालने की कोशिश ज़रूर करूँगी....हर जगह की मिट्टी और मौसम के अनुसार हल भी अलग, अलग ही होंगे...सबसे ज़रूरी बात ये होती है,कि, पौधों को रोज़ एक निगाह की ज़रूरत होती ही होती है...

सिर्फ़ पानी मिल रहा है या नही, इतनाही देखना काफी नही... ...बल्कि, कहीँ ज्यादा पानी तो नही पड़ रहा ये देखना भी ज़रूरी होता है...जिन्हें कम पानी चाहिए, ऐसे गमलों को अलगसे रखा जाना चाहिए....वरना उनपे फूलों के बदले पत्तेही निकलते रहेंगे!! या जो पौधे "succulent" इस वर्ग में आते हैं, उन्हें भी दिनमे दो बार पानी नही चाहिए...मेरा बगीचा छत पे है, तथा, बोन्साय के काफी पौधे हैं, जिन्हें, गमला छोटा होने के कारण दिन में दो बार पानी आवश्यक होता है...

कई पौधों की जड़ें, गमले के, नीचे,अतिरिक्त पानी निकल जानेके लिए जो छिद्र होते हैं, उनमेसे,बाहर निकल आती हैं...ऐसेमे गर तपी हुई छत से उनका संपर्क आता है, तो पौधे को हानी हो सकती है। इसपे एक आसान उपाय मैंने पाया...मिट्टी के बने, गोल आकार के थाली नुमा गमले/बर्तन मिलते हैं...उन्हें उलटा करके मै हर ऐसे गमलेके नीचे टिका देती हूँ....उपरसे हरी नेट अप्रैल तथा मई के महीनों में ज़रूरी होती है....जून के माह में पहली बौछार पड़ते ही नेट को निकाल तह बना रख लेती हूँ....गर फट गयी हो, तो रखने से पूर्व, अपनी सिलाई की मशीन छत पे निकाल सी लेती हूँ...और फिर धोके, रखवा लेती हूँ...

अब और क्या लिखूँ? "बरखा रानी ! आओ ना, आ जाओना, इतना भी तरसाओ ना, ...के इंतज़ार है एक 'शम्मं ' को तुम्हारा...के इंतज़ार है, इस कुदरत के हर पौधे, हर बूटेको, तुम्हारा... के तुमबिन सरजन हार कौन है इनका?के तुमबिन पालन हार कौन है इनका?"